
कुछ स्थान महज़ स्थान नहीं होते बल्कि इतिहास के पन्नों ,दृश्यों के मूक गवाह होते हैं ,ऐसा ही स्थान है टिल्ला जोगियाँ ! टिल्ला जोगियाँ पाकिस्तानी पंजाब में झेलम ज़िले में नमक की पहाड़ी श्रृंखला में वहां की दूसरी सबसे ऊंची पहाड़ी है,क्योंकि पहाड़ी को पंजाबी में टिल्ला भी कहते हैं सो टिल्ला जोगियाँ का अर्थ हुआ जोगियों की पहाड़ी!

हीर से बिछुड़ने के बाद राँझा कौन सी मंज़िल जा पहुँचा ?
धीदो राँझा ,जिसके हाथ में प्रेम के मधुर स्वर सुनाने वाली वंझली(बाँसुरी) रहती थी,और इन स्वरों की मुरीद हीर स्याल को हीर के चाचा कैंदों की कुटिल चालों के चलते दूर रंगपुर गाँव सैदे खेड़े नाम के व्यक्ति से ब्याह दिया गया तो रांझे की दुनिया में अंधेरा छा गया ,उसे लगता था कि अब झंग(हीर का पैतृक गाँव) में लोग क्यों रह रहे हैं? हीर के बिना इस मनहूस गाँव में क्या रखा है,गाँव ही क्या,अब स्याह दुनिया में क्या रखा है?जिस प्रकार कच्ची दीवार पर पानी की तेज़ बौछारों से उस दीवार की दयनीय दशा हो जाती है , रांझें का दिल-दिमाग उस दीवार सा हो गया और वह निराश यायावरों की तरह गाँव-गाँव भटकता टिल्ला जोगियाँ की पहाड़ी जा पहुंचा ,राँझे ने सुन रखा था कि वहाँ जाकर दिल में इस जगत के प्रति आसक्ति , पीड़ाओं से छुटकारा मिल जाता है! क्या सच में वह ऐसा कर पाया ?
आख़िर टिल्ला जोगियाँ पहाड़ी पर है क्या?
इस पहाड़ी के शिखर पर छोटे-छोटे दर्ज़न भर जर्जर मन्दिर,कुछ मठ,गुफाएँ हैं,जहाँ सरकारी संरक्षण के बिना और ‘गुप्त खज़ाने’ के भूखे लोगों ने इनकी आत्मा कुरेद कर रख दी है ,वहाँ कभी सैंकड़ों वर्षों से नाथ जोगियों के दल रहते थे,जो नश्वर जगत की उलझनों से दूर अपने जोग ,अपने ध्यान में खोए रहते थे । धूनी और धुन के धनी जोगी ही जोगी ,गेरूए-भगवे वस्त्रों को धारण करने वाले कनफटे भद्र-पुरुष !
कहा जाता है कि इस जगह पर हठ योग की साधना पद्धति पर आधारित नाथ सम्प्रदाय के गुरु गोरखनाथ ने जोगियों के इस मठ की स्थापना की ,गुरु गोरखनाथ कौन थे?यूं तो नाथ संप्रदाय के आदिगुरु भगवान शिव और महत्वपूर्ण प्रारंभिक गुरु मछिंद्रनाथ (मत्स्येंद्रनाथ) को माना जाता है ,परंतु के मछिंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ ने मठवादी योग की स्थापना और बिखरी योग-तकनीकों को सुव्यवस्थित किया,सो इन्हें नाथ सम्प्रदाय का संस्थापक भी कहा जाता है।लोक कथाओं के अनुसार शिव और पार्वती भी इस टिल्ला जोगियाँ पर आते थे। गुरु गोरखनाथ द्वारा इस मठ की स्थापना के पश्चात गुज़रती शताब्दियों के साथ ऐतिहासिक घटनाएँ और दंत कथाएँ इस स्थान के पते के साथ जुड़तीं गईं।
राजा भरथरी का बाबा भरथरी बनना
उत्तर भारत में उज्जैन के कवि ,विद्वान राजा भरथरी (भर्तृहरी)को कैसे भूला जा सकता है , कहते हैं वे अपनी एक रानी पिंगला को बहुत प्रेम करते थे और कुछ कथाओं के अनुसार इस रानी की बेवफ़ाई की वजह से व्यथित होकर राजा बैरागी हो गए और वहीं कुछ कथाओं के अनुसार राजा भरथरी की रानी पिंगला बेवफ़ा नहीं थी अपितु राजा भरथरी ने रानी के प्रेम की परख के लिए अपनी मृत्यु का झूठा संदेश रानी पिंगला तक पहुंचाया तो रानी को मृत्यु की ख़बर का ऐसा सदमा पहुंचा कि रानी ने प्राण त्याग दिए,इससे राजा भरथरी आश्चर्य और घोर दुःख और विलाप में डूब गए कि उन्होंने प्रेम परीक्षा में क्या अनर्थ कर डाला ?प्रिय रानी के प्राण ले लिए ! अंततः पछतावे की अगन में जलते राजा भरथरी राजपाट अपने भाई विक्रमादित्य को सौंपकर टिल्ला-जोगियाँ की पहाड़ी पर गुरु गोरखनाथ की शरण में चले गए और जोग धारण कर शेष श्वास नाथ योग के नाम लिख दिए और अंततः राजा भरथरी नाथ पंथ के महान योगी कहलाए।
अलबेरुनी की बातें
यह सबको मालूम है कि मध्य एशिया का ग्यारहवीं सदी का लेखक और यात्री अलबेरुनी हिदू ज्ञान ,विज्ञान ,परम्पराओं ,रीति रिवाजों को बड़ा बारीकी से अध्ययन करता था।कहते हैं वह भी यहाँ आया और इस क्षेत्र के आसपास लम्बे समय रहते हुए उसने पृथ्वी की परिधि का आकलन किया।
नानक जोगियों से क्या बोले?
वक्त के साथ टिल्ला जोगियाँ के आसपास नदियों में दर्पण जैसा निर्मल जल बहता रहा और उसमें दिखने वाले प्रकाश पुंज भी बदलते रहे। मध्यकाल में इन्ही नदियों के किनारे दिव्य प्रकाश-पुंज बाबा गुरुनानक अपनी चौथी उदासी यात्रा में आ पहुँचे थे,जो अपनी लम्बी यात्राओं से देश विदेश में आम लोगों, दरवेशों ,गुरुओं,वलियों से मिलते मतान्तर ,मतैक्य के क्रम में ज्ञान चर्चा करते घूम रहे थे , वे टिल्ला जोगियाँ पहाड़ी की तलहटी में विश्राम के लिए बैठे , उस काल में टिल्ला पर पर एक संत बाल गुंदाई रहते थे ,वे पहाड़ी से स्वयं उतर कर गुरुनानकदेव जी को ससम्मान लेकर शिखर पर मौज़ूद मठ में लेकर गए ,बाल गुंदाई ने इस विशेष अतिथि को टिल्ला-जोगियाँ के धुनियों , भोजन शाला , समाधियों , अश्वों का अवलोकन करवाया और दोनों दिव्य आत्माओं ने आध्यात्मिक चर्चा की ।यह गौरतलब है कि गुरुनानक ने अपने भ्रमण में दुनिया भर में अनेक सिद्धों, नाथों ,साधुओं से चर्चा की , उनके अनुसार व्यक्ति संसार में रहकर गृहस्थ रहकर सत्यनिष्ठा से जीविकोपार्जन द्वारा भी प्रभुभक्ति में लीन रह सकता है ,संसार में मोहताज़ , लाचार लोगों के सेवा भी एक योग है और नाथ सम्प्रदाय का मार्ग परम-मुक्ति का था ,जिसके अनुसार आध्यात्मिक मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्त तब होती है जब आत्मा अज्ञान और भ्रम से उत्पन्न पदार्थ के बंधन से मुक्त हो जाती है।
खैर नानक रात भर इस पवित्र पहाड़ी पर रुके ,उनकी स्मृति में कोई सवा दो सौ वर्षों बाद पंजाब के महानतम सिख महाराजा महाराजा रणजीत सिंह ने छोटा सा गुरुद्वारा और सरोवर बनवाया।
टिल्ला जोगियाँ के बारे में अकबर क्यों विस्मित हुआ?
अकबर के ज़माने में बालनाथ नाम के संत यहाँ मौज़ूद थे और अकबर ख़ुद अपनी श्रद्धा ,उत्सुकता वश यहाँ आया।अकबर के समय उसके दरबारी लेखक और योद्धा अबुल फ़ज़ल ,जोकि भारी भरकम ज्ञानकोष अकबरनामा लिख रहे थे ,से टिल्ला जोगियाँ की स्थापना और पुरातनता के बारे में पूछा तो अबुल फ़ज़ल ने ये कहते हुए लाचारी दिखाई कि महाराज यह स्थान अदभुत है और इतना रहस्यपूर्ण है कि इसका शुरुआत का इतिहास जानना मेरी योग्यता के बाहर है।अकबर के पुत्र जहाँगीर ने भी इस स्थान का दौरा अनेक बार किया ।
राँझा जोगी बन गया ,क्या सच में?
हीर के वियोग का शिकार राँझा टिल्ला जोगियाँ के संत बालनाथ के आगे विलाप करने लगा ,महाराज मुझे जोग लेना है, मैं राँझा संसार की भूल-भुलैया में खो गया हूँ ,मेरी बेड़ियाँ काट दो तो बाबा बालनाथ ने कहा अरे जोग कोई खेल नहीं है,नीम की पत्तियों सा कड़वा ,तुम अमीर माता पिता की सन्तान ,सुखों ,विकारों में मदमस्त रहने वाले सुकुमार … ।राँझा संसार के दुखों,कष्टों की बात करता हुआ बाबा बालनाथ को शिष्य बना लेने के मना लेता है। राँझे के प्रति सशंकित बालनाथ उसे संसार से निर्लिप्त रहकर सादा जीवन जीने के साहस की चेतावनी के साथ जोगी बना देते हैं।राँझे का मुंडन कर उसके कानों को फाड़कर गोल कुंडल पहना दिये और शरीर पर भस्म मल दी गई और इस प्रकार राँझा जोगी बनकर अन्तत: पहाड़ी से अज्ञात गंतव्यों की और चल दिया।
राँझा जोगी की तरह घूमता रहा परन्तु एक तो राँझा जोगी बनकर हीर को भूल न सका ,दूसरा लोगों द्वारा उसे असफल प्रेम के ताने,उलाहने उसे जोगी के भेष में आख़िरकार हीर के पास उसके ससुराल रंगपुर गाँव ले गए।कई मार्मिक घटनाओं के पश्चात् फिर से मिल चुका व्याकुल युगल किसी तरह से बचते बचाते हीर के ही माँ-बाप के पास जा पहुँचता हैं।उनके जीवन में सुखद मोड़ आते आते अनुनय-विनय के बाद हीर और राँझा के विवाह की तैयारियाँ होने लगीं,परन्तु हीर का शैतान रूपी चाचा कैदों अपनी कुटिलता फिर्सेछोद ना सका,वो हीर-राँझा को विष देकर मरवा देता है और राँझण जोगी की प्रेम कथा दुखद अंत में परिणत हो जाती है।
टिल्ला जोगियाँ का भविष्य
आज के समय टिल्ला जोगियाँ धूल धूसरित होता जा रहा है।सभी स्मारक जर्जर और खंडहर हो चले हैं।कभी अनेक उत्सवों का साक्षी टिल्ला जोगियाँ अपने दामन में न जाने कितने दुःख सम्भाले हुए है।1947 के बाद नाथ जोगी वहाँ से भारत चले आए और यह स्थल उपेक्षा के गर्त में डाल दिया गया।हीर-राँझा महाकाव्य के लेखक वारिसशाह ने लिखा है कि मैं आज पीले पत्तों सा हूँ ,हवा के झोंकों से भी डर लगता है।टिल्ला जोगियाँ न जाने कितने हवा के झोंके सहन कर पाएगा या फिर वंसत ऋतू बनकर होकर मुस्कुराएगा ?
Comments (1)
uadminsays:
July 31, 2025 at 5:21 amExcellent Writing Skills